शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

मोड़ा बोले हप्प.........


गोबर का पला लेके निकले, और उलझ गए भुरारे ही झूठ-सच में। सुबह के पांच बज रहे हैं। लोग बाग ठाड़े बैठे बतिया रहे हैं। कोई कह रहा है कि रातें कुत्ता भूंस रहे थे। तो कोई रह रहा है कि दो बजे किसी की गाड़ी निकली थी। कोई बारिश की भविष्यवाणी कर रहा है। गोबर सानी से निपटे ही थे कि पड़ोस में जंग छिड़ गयी। सब काम छोड़ के लड़ाई देखना भी यहां महत्पूर्ण कार्य है। जब मैनें सरकारी सफाई कर्मचारी से पूंछा कहां गए थे तो बोला “ कहूं नईं थोड़ी लड़ाई देखन चले गए थे।
अब लड़ाई रोचक मोड़ ले चुकी थी। फुरसत में बैठे लोगों को उम्मीद थी कि मामला और भी रोचक होगा। हाथांपाई होगी। फिर लाठी-डंडा, फरसा से बात छत्तों से ईंट और पत्थरबाज़ी तक पंहुचेगी। हो सकता है एकाद फायर भी हो जाएं.....खैर यहां लड़ाई के लिहाज से कुछ पापुलर स्थान हैं, जहां रोज-रोज की लड़ाइंया है। पर लोग बागों की रुचि नई जगह की लड़ाई में ज्यादा है। उन्हें लगता है कि यहां कुछ रोचक हो सकता है। अब लड़ाई प्रारंभ हुई....मानक नाम के आदमी ने गालियों के शब्दकोष से ऐसी –ऐसी नई गालियां निकाली की दूसरों का गालियों का शब्दकोष समृद्ध हो जाए। लोग कहें कि ‘वाह भाई कैसी-कैसीं सुनाईं।” मानक ने छुट्टे के परिवार की महिलाओं पर निशाना साधते हुए क्या-क्या कहा। जिसमें बल्लम के प्रयोग का जिक्र था.. तो छुट्टन ने गुस्से में मानक के शौंच के स्थान को चीरने –फाड़ने की बात की...और ये भी कहा कि वो मानक की मां के बारे में क्या विचार रखते हैं। गुस्से के इस दौर में भी काटने जलाने के बाद यमुना के साथ जमुना जी लगाकर बात की जा रही थी। हां वो जमुना जी में बहा देंगे। दोनो पक्षों की ओर से कभी –कभी प्रयोग की जाने वाली गालियां जोकि मानक अपने मामा के इलाके से लेकर आया था तो छुट्टन नें ससुराल वाले इलाके में सीखीं थी। जिनमें अपने अंग विशेष से लेकर दूसरों के शौंच के स्थान के बारे में वो क्या सोचते हैं का शानदार मुजाहिरा किया गया। छोटे बच्चे भी भविष्य के लिए अपने शब्दकोष को रिच कर रहे थे। खैर लड़ाई गालियों तक ही सीमित रही...और भविष्य की लड़ाई के लिए भूमिका तैयार होने के बाद शांत हो गयी। लोगों को निराशा हांथ लगी। बिना कलेउ के लोगबाग उठ ही पाए थे कि डमरू की आवाज़ सुनाई दी। लोग आवाज़ की दिशा में निकल पड़े। खेल वाला था, जो खेल कम दिखाता था फालतू की घंटो बकवास पढ़ता था। लोग बड़े चाव से उसकी बातों को आत्मसात करते। लोगबाग अपनी चप्पलों को पुट्ठों के नीचे दबाकर बड़े इत्मीनान से बैठ जाते। महिलाएं भी छत से देखने की कोशिश करतीं। खेल के बाद खेल वाला नया खेल शुरू कर देता। भालू के बाल, शेर के नाखून, भोजपत्र और कुछ उल्टी सीधी चीजों को जंग लगे टिन को मोड़कर ताबींज बनाता और कहता है कि ये बच्चों को भूत से, हवा से, महिलाओं को चुडैल से हाल ही में मरी अम्मा से, फांसी लगा के मरी उर्मिला से और आदमी लड़कों को जिन्न, मसान, देवता से बचाएगी। और हां परीत से भी। इधर लोग 10 रुपए का ताबीज लेके सभी व्याधियों से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं। वहां अम्मा नर्रा रहीं है। भैंसे प्यास के मारे रैंक रहीं हैं। छोटे-छोटे मोड़ी मोड़ा बिलख रहे हैं। हालांकि यहा लोगबाग पूरे-पूरे दिन अपने नातियों को खिलाने की दम रखते हैं। हां नातिन को नहीं। कुछ लोग तो पकड़-पकड़ के दूसरों के साफ सुथरे लड़कों को खिलाते हैं... घंटो। हाल ही में मैनें एक नोयड़ा से नौकरी करके आए लौंडे को बच्चा खिलाते देखा। भइया बच्चा खिलाता है या डराता... पता ही नहीं चलता। भयानक तरीके से ...ओ लला ....इतनी जोर से कि बच्चा डर के मारे दहाड़ मारे के रोने लगा। ये लौंडा अभी भी भ्रम में था कि मोड़ा रो नहीं हंस रहा है। वाकई कुछ लोगों का बच्चों को खिलाना भी डराने के माफिक होता है। जोर से दहाड़ते हुए ओ लला का लेगो तू? लला मन ही मन सोच रहा है “है राक्षस तेरे से मुक्ति।“
लला नें बच्चों को खिलाने के मामले में एक्सपर्ट बिटोला बुआ को देखा और हो गए सवार। अब बिटोला बुआ लला को सिखाएंगी “लला बिट्टी को हप्प कर दे”। “लला बिट्टी को मार दे”। लला की ट्रेनिंग शुरू हो चुकी है। वो अपने से तीन साल बड़ी अपनी बहिन को डराने लगा है। और बिट्टी पर डरने का चहुँओर से दबाव है। मुझे याद है कि बिट्टी को उसके दाऊ खिलाते भी कितने भयानक तरीके से थे। उसके दोनो कानों के बल पकड़कर उसको उठा दिया जाता था। उसको जमीन से आसमान की ओर उछालते हुए एडवेंचरस तरीकों ले खिलाया जाता था। जबकि लला पर ऐसे प्रयोग करने की सोचना भी वर्जित था। लला को खिलाने वाले दर्जनों हैं। घर से लेकर मोहल्ले वाले तक। लला सबका मनोरंजन करते हैं तो बिट्टी हैरान।
बिटोला बीएससी में है इस साल। एकबार में ही उन्हें किताबें कांपियां दिला दी गयीं हैं। बिटोला ने सभी कापिंयों की जिल्द पर सुंदर-सुंदर चिटे लगाईं है। उनपें रमा से सुंदर अक्षरों में नाम गुदवाया है। कांपी के पहले पेज पर अपना नाम और पूरा पता कलर पैन से लिखा है। पापा का मोबाइल नंबर डाल दिया है। हर विषय की कांपी पर विषय को लिखा। रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, जीवविज्ञान इत्यादि। इसके दो दिन बाद कांपिया टांड़ पे रख दी जाती हैं। क्योंकि बिटोला की ड्यूटी अब नई भाभी को हगाने से लेकर माता के मंदिर तक की है। भाभी कब हंसेगी किससे बोलेंगी बिटोला ही फिलहाल ये तय करेंगी। तबतक किताबों ओर कांपियों में धूल लग जाएगी। उन्हें पेपरों के टाइम पे भइया मोटर साइकिल पे लेके पेपर दिलाने ले जाएंगे...क्रमश:

शनिवार, 13 जून 2015

ग्लूकोन- डी

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में ग्लूकोन- डी बनाने वाली अमेरिकन फार्मा कंपनी H.J हेइंज के खिलाफ शिकायत दर्ज की गयी है। शिकायतकर्ता का कहना है कि ग्लीकोन-डी पीने के बाद उसके परिवार की तबियत बिगड़ गयी और लगातार उल्टियां हुईं । पीड़ित का दावा है कि पैकेट में कीड़ा भी निकला, उसके बाद उसने संबंधित फूड अथोरिटीज को तत्काल मामले की जानकारी दी।  मैगी मामले के बाद सेहत को लेकर जागरुक रहने वाले उपभोक्ताओं में बाजार में उपलब्ध कई और उत्पादों को लेकर चिंता बढ़ गयी है। हरसाल गर्मियों में ग्लूकोन-डी की खपत बढ़ जाती है। क्योंकि इसके पीने से गर्मी से राहत के साथ- साथ तुरंत ऊर्जा भी मिलती है।  लेकिन जब बुलंदशहर में एक  बुलंदशहर में जब ग्लूकोन-डी में इंसैक्ट मिला तो खाद्य विभाग के अधिकारी सकते में आ गए। और हड़कंप मच गया। 
मैगी को स्विस कंपनी नैस्ले बनाती है। हाल ही में की गयी जांच में मैगी में तयशुदा मानकों से सात गुना ज्यादा शीशा पाया था। जिसके बाद देशभर में इसको प्रतिबंधित कर दिया गया । इस मामले नें भारत में खाद्य मानको के साथ घोर लापरवाही बरतने के आरोपों को हवा दी है। 
 ग्लूकोन- डी मामले की जांच लखनऊ की लैब में हो रही है। जिसकी फाइनल रिपोर्ट आनी बाकी है। वहीं मैगी बनाने वाली नैस्ले ने भारतीय लैब में की गयी जांच को चुनौती देते हुए दावा किया है हमारे मानक दुनियाभर में समान हैं। अपने नागरिकों की अच्छी सेहत को मद्देनजर रखते हुए सरकार को हरसंभव प्रयास करने की जरूरत है। 

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

"झूठ का आवरण"

विराट ठंड में भी लोगबाग "झूठ का आवरण"ओढ़ने से बाज नहीं आएंगे। वैसे भी खाली-पीली हममें से कई, दुनियादारी के तमाम बोझों के साथ-साथ झूठे आवरणों का बोझ लिए घूमते रहते हैं। बिना मतलब का। अब ठंड में कई लोग टोपा और मफलर से परहेज करेंगे। उन्हें लगता है कि इस दिल्ली एनसीआर में उनके शैंपू और कंडिशनर किए बालों को निहारने के लिए कई लोग खाली बैठे हैं। उन्होने क्या पहना है? सब यही देखने के लिए जगह-जगह तैनात हैं। जबकि असल में इस भागम-भाग किसे इतनी फुरसत? सिर्फ भोली-भाली प्रमेिका के। कोई बड़ा-बूढ़ा, जो फुरसत में होगा.. पूछेगा कि "भइ कानों में ठंड नहीं लगती " तो कह देंगे- न ।

शनिवार, 19 जुलाई 2014

एक कॉमरेड का कमरा...

एक कॉमरेड का कमरा...
बिखरे पड़े जली-बुझे सिगरिटों और बीड़ी के ढूढ़
अस्त-व्यस्त पड़ीं किताबें...
दीमकों से चटीं पड़ी किताब के ऊपर रखा.. 
हफ्तों से न खाया गया..एक पुराना पान ।
किताबों की मोटी लाल जिल्द...
जिसपर हैं मार्क्स, लेनिन, फ्रायड के चित्र
और कमरे की दीवारों पर चिग्वेरा।
जब कॉमरेड ठिकाना बदलता है...
तो....
वर्षों पहले घर से लाया हुआ
टीन का जंग लगा बक्सा 
और उसमें रखी किताबें...
कमरें में छूट रहीं हैं
खाली शराब की बोतलें 
जिसमें क्वाटरों की संख्या ज्यादा है
क्रांति का सपना पाले 
कॉमरेड की किचन !
गैर मंझे, जमाने से रखे 
बर्तन....
लग गई है उनमें अब जंग..
कॉमरेड की प्रेमिका आती हैं
अहिस्ता- अहिस्ता....
और सीधे धूल और जंग लगे 
बासनों को मांजने लगती हैं
जानते हुए भी...
कि कॉमरेड की जेब में 
बिंडल और माचिस के सिवा 
कुछ नहीं हैं....कितना धैर्य होता है सच में.....भूपेंद्र

रविवार, 4 मई 2014

न चाहते हुए भी कुछ ख्याल आ ही जाते हैं फिर उन ख्यालों में इतना डूब जाता हूँ कि आसपास क्या हो रहा है पता ही नहीं रहता कुछ लोग धीरे से पास आते हैं और बीच में ही टोक देते हैं क्यों टेंसन में हो उन्हें पता नहीं होता कि मै कुछ सोच सोच कर जिंदगी के मजे ले रहा हूँ क्योंकि यादों के भी अपने मजे होते हैं कुछ लम्हे ऐसे होते हैं कि जी चाहता है फिर से उनका दोहराव पर जानता हूँ ये असम्भव है फिर भी लगता है ऐसा फिर हो सकता है कोई छूटा हुआ साथी फिर से मिल सकता है न चाहते हुए भी कुछ ख्याल आ ही जाते हैं

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

“अब छमिया रेडी है।”

आज करीब साढ़े बजे ही नींद खुल गई। खच्च-खच्च की आवाजें आ रहीं थीं। अलसुबह गांव के लोग कुटी कतरने की मशीन से करब और चारा कतर रहे थे। मैं खटिया से उठा और सीधा खेतों की ओर निकल गया। बिना लोटा के। पता था कि तालाब में पानी तो भरा ही होगा।
रास्ते में कुछ दोस्त मिले। रामजुहार हुई। वे अपनी-अपनी साइकिलों पर करब के गठा लादे चले आ रहे थे, पसीने से लथपथ। कुछ बुजुर्गों ने सिर पर ही घास की पुटरियां लाद रखीं थीं। ओस की बजह से गीलीं थी।
मेरे चाचा का छोरा अपनी साइकिल को चमकाने में लगा था। चिक शैंपू की मदद से। उसका मैन फोकस साइकिल के रिम और तानें चमकाने पर था। पास में ही मेरे मित्र का छोटा भाई, भाई की शादी में मिली मौटर साइकिल को दुल्हनिया की तरह सजा रहा था। लक्स शैंपू से धोकर, आर्टिफीशियल माला मौटरसइकिल के गले में डाल दी थी। इतने में उसकी दादी आईं, देवि पूजि कमल तुम्हारे जपती हुईं और अगरबत्ती जोर जोर से घुमाकर मौटर साइकिल की पूजा करने लगीं। लोंडे ने जोर से सीट पर हाथ पटका और बोला, अब छमिया रेडी है।
घर लौटकर एक छोटी भगौनी दूध और पोहा पेलकर, भीतर के आंगन में गया। जहां खटिया पर घर निर्मित चिप्स और जमीन पर दौल पसरे हुए थे। दोनो पर थोड़ा सा हाथ साफ किया. बोले तो कुटक लिए।
मेरे फौज से रिटायर्ड पिता जी ने इंजन चालू किया, करब कतरने के लिए उधर मैंने रसोई में जाकर भुने हुए चने जेब में भरे। और बरक आया असली कामचोर की तरह। बाहर एक बुढ़ा आदमी सूप और डलियां बेच रहा था। द्वार पर बैठीं दादी को बोला अम्मा ले लो डलिया। अम्मा ने पूछा कितने की है। तो उस हाफते बूढ़े आदमी ने कहा 20 रुपया की। मेरी दादी बोलीं 10 देगें। बस फिर क्या था, मेरे प्रवचन शुरू। पता ये आदमी हाथ से बनीं इन डलियों के लिए कितनी मेहनत करता होगा। पहले बांस को छीलना,काटना,रंगना दिल्ली में यही डलिया 100 से कम में नहीं बिकेगी।
हमेशा फुर्ती में रहने वाले पिता जी एक झोला में दौल और चने लेकर किसी पंडित जी महाराज के देने जा रहे हैं। पिता जी बता रहे थे कि महाराज का चने की रोटी खाने का बहुत दिनों से मन है। मुझे बाद में पता चला कि इन्हीं पंडित जी की सलाह पर पिता जी ने पूना जाने के कन्फर्म टिकट को कैंसिल करवा दिया है। पंडित जी ने कहा है कि पितृ पक्ष में कोई भी शुभ काम नहीं करना है।
खैर आज का दिन बढ़िया रहा। शाम को फिर हार में घूमने गया, शुद्ध आक्सीजन खाई। कल गन्ने चौखने का मूड है। वैसे नियम है कि बिना देवुठान पूजा के खेत से गन्ना नहीं तोड़ना चाहिये। क्रमश:


शनिवार, 17 अगस्त 2013

प्रेम करने की आजादी पर बंदिशे आपरेशन मजनूं के नाम पे


आप ग्वालियर के पिछले चार पांच माह के अखबार पलिटए। आपको लगातार पढ़ने को मिलेगा कि फलां जगह पुलिस ने मजनुओं को मुर्गा बनाया, कान पकड़ कर उठक बैठक लगवाईं, लड़के को साथ की लड़की से बहिन बुलवाया इत्यादि। मतलब अब शहर में प्रेम पर फुल पाबंदी है। आप शहर में अपनी मित्र के साथ न घूम सकते हो, न कहीं बैठकर तसल्ली से बात कर सकते हो। एक लड़का और लड़की मित्र भी हो सकते हैं, ऐसा करना कोई गुनाह तो है नहीं। पर ग्वालियर में ऐसा करना जुर्म है।
 बालिग प्रेम कर सकते हैं, ये उनका अधिकार है। अगर आप उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हो तो अपऱाधी आप हो। रही बात नाबालिग लड़के और लड़के की, तो उन्हें भी दोस्ती करने से रोका नहीं जा सकता। पर पुलिस को तो हर युवक मजनूं दिखाई देता है और इसी के नाम पर प्रेमिका के सामने एक युवक को अपमानित किया जाता है। वैसे लैला मजनूं होना कहां का गुनाह है भइया।
एक तरफ पुलिस को प्रेमी जोड़े को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए, पर यहां तो पुलिस उल्टी प्यार की दुश्मन की भूमिका में है। आपकी जायज शिकायतें तो नजरअंदाज हो सकती हैं पर मॉल जैसी जगहों पर पुलिस बिना शिकायत के धावा बोल सकती है। जबकि मॉल जैसी जगहों पर कैमरा के साथ कड़ी सुरक्षा भी रहती है, वहां छेड़छाड़ की गुंजाइश नगण्य होती है। पर पुलिस वहां भी डंडा चलाने से गुरेज नहीं करती ।लड़के लड़की को खूब अपमानित तो किया ही जाता है, साथ में घर पर फोन करके बच्चों को शर्मिंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती।
भई ऐसे युवक और युवती पुलिस के लिए आसान शिकार जो हैं। जबकि ठीक उसी समय, जब पुलिस इन नवयुवक और युवतियों पर जुल्म ढा रही होती है, शहर में सरकारी जमीनों पर कब्जा हो रहा होता है। दलितों और महिलाओं पर अत्याचार हो रहे होते हैं। सरकारी दफ्तरों से लेकर प्राइवेट कॉलेजों में लूट मची होती है। पुलिस हफ्ता वसूल रही होती है। सफेदपोश यूनीवर्सटी की जमीन हथियानें के षढयंत्र रच रहे होते हैं। क्या पुलिस इनसे भी उठक-बैठक लगवाएगी, इन्हें भी मुर्गा बनाएगी ?
लड़के लड़कियों को जबरन थाने में बैठाना। एक प्रेमिका के सामने उसके प्रेमी को अपमानित करना। पुलिस को शायद मालूम नहीं होगा कि उसके ऐसे कृत्य कई गंभीर घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं। इन्हीं चार माह के दौरान कई ऐसी खबरें पढ़ने को मिलीं, जिसमें लड़का घर से बिना बताए गायब हो गया। लड़की ने खुदकुशी कर ली। लड़के ने आत्महत्या कर ली।
प्रेम करने की आजादी पर बदिशें लगाकर तुम्हें क्या मिल रहा है ? सिर्फ झूंठी शान और वीरता का गुमान। इस तरह की संकीर्ण मानसिकता देश के भविष्य के लिए घातक है, जो आजाद देश में गुलाम होने का बराबर अहसास कराती है।
हमें पता है कि इसतरह के जुल्मों के सहारे तुम असल मुद्दों से जनता का ध्यान भटका रहे हो। इस तरह के कृत्यों के लिए सिर्फ पुलिस ही नहीं वरन पत्रकार, संपादक, सुधी पाठक, अभिभावक,छात्र नेता, न्यायपालिका सब जिम्मेदार हैं।
समाज में अराजक तत्व होते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। वो दंड के पात्र हैं पर दो लोग सहमति से प्रेम कर रहे हैं, पुलिस बिना किसी शिकायत के इकतरफा कार्रवाई नहीं कर सकती। जबकि शहर में देशभर से छात्र पढ़ने आते हैं, तो अमूमन एक दूसरे की मदद और दोस्ती होना आम बात है। कई लड़कियों को जब किसी मदद की जरूरत होती है तो वो सीधे अपने सहपाठी को फोन करती हैं। अब आप ही बताओ कि क्या उन्हें पुलिस को फोन करके मदद मांगनी चाहिए ?

अरे तुम्हें रोकना ही है तो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकिए। गैरबराबरी को रोकिए। जब फिल्म देखते हो तो प्रेमी-प्रेमिका के मिलन के लिए माला जपते हो, प्रेमी-प्रेमिका के विरोधियों से नफरत करते हो। और असल जिंदगी में खुद विलेन बन जाते हो। महिलाओं की सच में फिकर है तो उनकी रपट को दर्ज करके समय पर कार्रवाई करिए। वास्तविक हिंसा को रोको। पर प्रेम पे बंदिश लगाने का पाप मत करो।