हर व्यक्ति आला दर्जे के सवाल पूंछे, असंभव है


हर व्यक्ति आला दर्जे के सवाल पूंछे, असंभव है । व्यक्ति के विचारों का स्तर अंतर्राष्ट्रीय दर्जे का हो, नामुमकिन है भैया । प्रत्येक इंसान की पृष्ठभूमि अलग अलग होती है । व्यक्ति की सोच का निर्धारण बहुत हद तक सामाजिक ढांचा भी तय करता है । बैतूल जिले के किसी गाँव के व्यक्ति का सवाल गाजियाबाद के व्यक्ति से अलग ही होगा । हो सकता है कि बैतूल जिले वाले का सवाल ज्यादा गंभीर किस्म का हो । जब मैं गाँव जाता हूँ तो लोगो के सवालों और जबावों का स्तर अलग अलग होता । कुछ लोगों ने पूंछा कि दिल्ली में लड़के लड़की साथ पढ़ते हैं । खूब मस्ती होती होगी । कुछ लोगों ने टीवी एंकर और रेडियो जोकी के बारे में अपनी राय बताई जिसे हम बेहूदा श्रेणी में रख सकते हैं । लोगों के सवाल भी कई बार बड़े आपत्तिजनक होते हैं । हालांकि मैं अपने स्तर पर विस्तार से समझाने की कोशिश करता हूँ । फिर मैं स्वयं के बारे में भी सोचता हूँ । जब मैं 6वी में था । अख़बार(आज अख़बार ) में सबसे पहले लास्ट के पन्ने पर छपी रंगीन फोटो देखता था । पर आज ऐसा नहीं है । कुछ लोगों ने कहा है कि जिन 22 लोगों ने पोस्ट को लाइक किया है उन्हे भी माफी मांगनी चाहिए । भैया हर व्यक्ति कि पसंद महान हो थोड़ा मुश्किल है । दैनिक भास्कर और इंडिया टुडे जैसे संस्थान पाठकों के टेस्ट के हिसाब से ख़बरें परोस रहे हैं । क्योंकि उन्हे पता है कि लोगों को क्या पसंद है । उन २२ लोगों को पोस्ट अच्छी लगी और पूरी ईमानदारी के साथ लाइक बटन क्लिक कर दिया । हालांकि कुछ लोग पसंद आए बिना भी लाइक कर देते हैं । उनपर माफी के लिए दबाव डालना निहायत ही फासीवादी है । जिन लोगों को हम दोयम दर्जे का कहते हैं । ऑक्सफोर्ड , कैंब्रिज , जेएनयू या फिर आईआईएमसी कहीं भी हो सकते हैं । १५ मिनट के साक्षात्कार में किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को परखना थोड़ा मुश्किल भरा काम है । जिन लोगों को नौकरी मिल जाती है उनकी मानसिकता महान है और जिन्हे नौकरी नही मिली वो कुंठित मानसिकता के लोग होते हैं , थोड़ा संदेह है । किसी को भयंकर मानसिक तनाव देना और उसको धमकाकर आनंद हासिल करना, गंदे निजी सवाल पुंछने से ज्यादा बुरा है । हिंसात्मक प्रतिक्रियाएँ दे रहे लोग घोर नारीवादी चिंतक और हितैषी होंगे थोड़ा संदेह है । फेसबुक पर जो लिखा जाता है सदैव वास्तविक नहीं होता । वास्तविकता कुछ और भी हो सकती है । आपने जो लिखा वो सनातन सत्य है । आपको मेरी लिखी हुई बातें माननी ही होंगी । ये भी फासीवादी रवैया है । मुझे इंडिया टुडे की अपेक्षा तहलका पसंद है जबकि देश में सबसे ज्यादा सरस सलिल पढ़ी जाती है । इंडिया टीवी की टीआरपी एनडीटीवी से ज्यादा होती है । अंधभक्त होना बुरा है । पर कुछ लोगों को अपने बनाए हुये भगवान के लिए हिंसा पर उतारू होना पसंद है । कई बार में गंभीर बात करता हूँ । पर लोग रूचि नहीं लेते । कई बार हल्की फुलकी बात पर सहमतिपूर्ण समर्थन मिल जाता है । कुछ लोगों की यह प्रतिक्रियाएँ कि अब इनका मीडिया में कैरियर बनने से रहा । एक तरह कि ब्लेकमेलिंग है । इन्हे भी माफ़ी मांगनी चाहिए । कभी कभी उदारवादी लोगों को भी फासीवादी भाषाशैली का प्रयोग करते देखा जा सकता है । खुद प्रोगरेसिव बनकर लीक से हटकर मुद्दा उठाना पसंद होता है । कई बार हम मनमाफिक सवालों की उम्मीद कर बैठते हैं । एक ऑटो वाला, बस वाला अपने हिसाब से गानों , फिल्मों और साहित्य का चयन करता है । अगर हम उससे कहें, भाई ईरान का सिनेमा देखो वर्ल्ड सिनेमा देखो । अच्छे विचार रखना बेहद आसान है पर उनको आचरण का रूप देना थोड़ा कठिन है ।
जब हम आउट ऑफ बॉक्स राय रख रहे होते हैं तब आउट ऑफ बॉक्स सवालों के लिए भी तैयार रहना पड़ता है । अभिनेत्रियाँ जिन्हें हम हीरोइन कहते हैं । इनके प्रति किस तरह की राय रखते हैं सब वाकिफ हैं । पत्रकारीय शिक्षा कहती है कि जाने माने व्यक्ति से जुड़े तथ्य भी ख़बर के रूप में स्वीकार्य हैं । आखिर लोक रुचि का सवाल है ।
लोगों को क्या पूछना चाहिए ? क्या देखना चाहिए ? क्या पसंद करना चाहिए ? इसका निर्धारण हम नही कर सकते । व्यक्तिगत कुंठाओ को दवाना खुद के साथ हिंसा जैसा है। बाहर निकालना ज्यादा बेहतर है ताकि समय रहते ट्रीटमेंट किया जा सके ।
अगर तुच्छ मानसिकता का ठप्पा लगाकर, माफ़ी के लिए मजबूर करें तो देश में मनोहर कहानियाँ और कथाएँ पढ़ने वालों की बहुत लंबी लाइन लग जाएगी । हो सकता है कि ९० फीसदी जनसंख्या आ जाए ।
तथाकथित आतंकी और नक्सलवादियों के बारे में लोग दो तरह की राय रखते हैं . एक वर्ग का मानना है कि इनकी भाषा में जवाब देना ज्यादा बढ़िया है . जबकि दूसरे वर्ग का मानना है कि समस्या की मूल जड़ को समझना और उसका ट्रीटमेंट करना बेहतर कदम होगा , हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए . मैं दूसरे वर्ग में शामिल हूँ .

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