मेरी पहली कविता


वो दिन भी क्या दिन थे
जब घंटो बीत जाते थे तुम्हे निहारने के इन्तजार में
और फिर तुम निकला करती थी
यूँ सज सवंर कर
की हम तुममे ही खोये रहते थे
तुम्हे देखकर तुम्हे सोचकर
हम गाना गाते थे
अपने ही बनाये हुए ख्यालों से
जाने कितने गीत
अपने आप बन जाते थे
...
तुम्हारे सामने खुद को गवांर पाते थे
किन्तु प्यार सच्चा था
इसलिए ज्यादा न घबराते थे
इतने दूर से तुम्हे देखते थे
किन्तु उस मौके को भी
कभी हम न गवांते थे
फिर तुम कभी कभी
रिमझिम करती
मेरे नजदीक आ ज़ाती थीं
और ऐसी गुदगुदी मचा देती थी
की फिर ख्यालों में
दिनों खोये रहते थे
कि अब तुम कब मिलोगी
वो दिन भी क्या दिन थे
फिर आज उनको पाने का जी करता है
फिर से वहीं लौट जाने को....भूपेन्द्र प्रताप सिंह

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