आदमी और जमीन



भारतीय जनसंचार संस्थान में आने से पहले अगर मैं इस संस्थान के किसी व्यक्ति को जानता था तो वो यही शख्स थे वो बात अलग है कि ये जनाब अपुन को नहीं जानते थे।
जब अक्सर इनको टीवी पर देखता तो भीड़ इकठ्ठी करने कि कोशिश में लगा रहता कि ये देखो मेरे होने वाले गुरु जी !
इनके बारे में मेरी कल्पना - मुझे पता चल चुका था कि ये हिंदी विभाग के एचओडी हैं, अक्सर मै सोचा करता था कि ये जब अपनी केबिन से बाहर निकलते होंगे तो दो चार लोग आगे पीछे चलते होंगे और बाहर निकलते ही पैर छूने वालों कि लाइन लगी रहती होगी और फिर यह अपनी महंगी गाडी में बैठकर चले जाते होंगे और क्लास में तो जब कभी ही जाते होंगे साल में एक दो बार ! क्योंकि जब हमारे यहाँ (जीवाजी यूनिवर्सिटी ) में कोई भी परमानेंट प्रोफ़ेसर अपनी केबिन से बाहर निकलता है तो दर्जनों लोग सिर्फ उनके पैर छूने में लगे रहते हैं. हमारे विभागाध्यक्ष साल भर में सिर्फ एक बार दर्शन देने आते थे . फिर ये तो टीवी वाले  विभागाध्यक्ष हैं. मैंने सोच रखा था एक बार तो मै भी इनके पैर छूकर ही दम लूँगा.
मौका भी जल्दी मिल गया -  मै लिखित परीक्षा पास करके साक्षात्कार के लिए गया तो यही जनाब साक्षात्कार ले रहे थे। पर मैंने सुना था कि ऐसे मौकों पर चरण स्पर्श करना नुकसान दायक हो सकता है. मैंने वहा ऐसी कोई गलती नहीं की. कुछ ही दिनों के अंतराल  में मुझे खुशखबरी मिली कि मुझे अंततः दाखिला मिल ही गया है.
अब मैंने सोचा कि अब तो इन महाशय के दर्शन तो हो ही जाया करेंगे कभी कभी। और पैर छूने का भी मौका मिल ही जायेगा. मै एक दिन संस्थान के दर्शन के लिए आया हुआ था। मेरी नजर एकाएक आनंद सर पर पड़ी। अरे ! ये आनंद सर हैं! वही टीवी वाले, पैदल चले जा रहे थे, स्टाफ क्वाटर की ओर, मैंने अपने साथ आये हुए मित्र को बोला (जिसका दुर्भाग्यवश दाखिला न हो सका ).
मै पैर छूने कि कोशिश कर पाता तब तक वो मेरी आँखों से ओझल हो चुके थे, मै साईकिल स्टैंड पर उनका इंतज़ार करने लगा वापस आने का, और इन्तजार ख़त्म हुआ. मैंने तेजी से सर की ओर दौड़ लगाई क्योंकि मै यह स्वर्णिम मौका खोना नहीं चाहता था . .किन्तु यह क्या उन्होंने दुगनी  तेजी से मेरे दोनों हांथो को पकड़ लिया,मेरे दिमाग में तुरंत ख्याल आया की इन्हें ट्रेनिंग दी गयी होगी आत्मघाती दस्ते सा बचने की.तेजी से  ख्याल आया की आज तो पुलिस से पाला पड़ेगा. किन्तु उन्होंने मुस्कराते हुए मेरा परिचय पूछा और साथ ही कहा कि अब तो हमारी रोज मुलाकात होती रहेगी .
मैंने हाल ही में एक जगह पढ़ा था कि जो इंसान अन्दर से खुश रहता है उसके चेहरे पर सदैव मुस्कान रहती आप इन  जनाब का कही भी फोटो देख लो चाहे वो फेसबुक पर हो या तहलका में या फिर टीवी पर बहस करते समय ९५ प्रतिशत समय मुस्कान पाएंगे. हम अक्सर बात भी करते है की यह आदमी अपनी जिन्दगी से बड़ा संतुष्ट है तभी इतना खुश रहता है !
एक दिन क्या हुआ - परिचर्चा की पहली क्लास चल रही थी मैंने सोचा ये आनंद सर नहीं आये मतलब ये तो आराम फरमा रहे होंगे  घर पर ,आज आलस आ गया होगा, क्योंकि हम जहाँ से पढ़कर  आये हैं वहाँ एचोडी मनमर्जी से ही चलते हैं. किन्तु मै जैसे ही क्लास से बाहर निकला देखा कि वो बगल कि क्लास में पढ़ा रहे थे .
मेरे एक मित्र का कहना है कि अगर हमारे यहाँ के प्रोफ़ेसर को इतना एक्सपोजर मिल जाये तो पैर छुबाने कि जगह सीधी अगरबत्ती से पूजा करवाने लगेंगे जबकि आनंद सर इस पैर छूने कि प्रथा के सख्त खिलाफ हैं . सबसे बड़ी जो खासियत मुझे लगी वो है उनकी सहज उपलब्धता.
कभी कभी मै सोचता हूँ - इनके पास कौन सी गाडी है क्योंकि मैंने इनको कभी गाडी पर सवार नहीं देखा हमेशा पैदल ही चलते मिले हैं, पर कभी कभी यह डर भी लगता है कि इनको कोई चोट न पहुंचा दे क्योंकि इन्होने आजकल भगवा रंग पर धावा बोल रखा एकदिन पता चला कि ये जनाब टीवी स्टूडियो से घर तक  ऑटो से ही चले आये...

एक सवाल जो पूछना था - कि धर्मेन्द्र प्रधान आपके भाई या रिश्तेदार हैं क्या ?
कुछ इस लेख को चापलूसी कि पराकाष्ठा भी कहेंगे किन्तु मै उनको स्पष्ट करना चाहूँगा कि जिसदिन मुझे लगेगा कि इन जनाब की मुझे आलोचना करनी चाहिए मुझे बिलकुल डर नहीं लगेगा क्योंकि मैंने असहमत होना भी इन्ही से सीखा है ! क्रमश:
 भूपेन्द्र प्रताप सिंह ''बुन्देलखंडी ''

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