गुरुवार, 6 सितंबर 2012

नारी पोषण या शोषण

अपने देश में कोई भी पुरुष लंगोट पहनकर चौराहे पे खड़ा हो जाए तो संस्कृति को कोई खतरा नहीं होता ,पर बिकनी वाली तस्वीर से ही संस्कृति को बुखार चढ़ आता है !
अतिथियों को माला भले ही पुरुष पहनाए किन्तु माला को मंच तक लाने का काम सिर्फ महिलयों के हवाले होता है !
दीप तो मुख्य अतिथि ही प्रज्वलित करते हैं किन्तु मोमबत्ती और माचिस के साथ महिला ही खड़ी मिलेगी। ठीक इसी तरह पुरुस्कार या सम्मान अर्पण तो मंत्री ,अधि...

कारी द्वारा किया जाता है किन्तु सम्मान की सामग्री ,यथा -शाल ,स्मृति चिन्ह ,चेक ,और श्री फल इत्यादि मंच तक शालीनता पूर्वक  ले जाने का काम करते कहीं भी पुरुष करते हुए नहीं मिलेंगे !
अब हम पुरुष बिरादरी को लगने लगा है की ये स्वागत करना तो महिलाओं का काम है चाहे वो स्वागत गीत गाना हो या सरस्वती वंदना का ठेका तो इन्हे मिला ही हुआ है..... ..भूपेन्द्र प्रताप सिंह
 
 
 
 

मेरी पहली कविता

वो दिन भी क्या दिन थे
जब घंटो बीत जाते थे तुम्हे निहारने के इन्तजार में
और फिर तुम निकला करती थी
यूँ सज सवंर कर
की हम तुममे ही खोये रहते थे
तुम्हे देखकर तुम्हे सोचकर
हम गाना गाते थे
अपने ही बनाये हुए ख्यालों से
जाने कितने गीत
अपने आप बन जाते थे
...

तुम्हारे सामने खुद को गवांर पाते थे
किन्तु प्यार सच्चा था
इसलिए ज्यादा न घबराते थे
इतने दूर से तुम्हे देखते थे
किन्तु उस मौके को भी
कभी हम न गवांते थे
फिर तुम कभी कभी
रिमझिम करती
मेरे नजदीक आ ज़ाती थीं
और ऐसी गुदगुदी मचा देती थी
की फिर ख्यालों में
दिनों खोये रहते थे
कि अब तुम कब मिलोगी
वो दिन भी क्या दिन थे
फिर आज उनको पाने का जी करता है
फिर से वहीं लौट जाने को....भूपेन्द्र प्रताप सिंह

नदी, नाव और कौआ...