मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

"झूठ का आवरण"

विराट ठंड में भी लोगबाग "झूठ का आवरण"ओढ़ने से बाज नहीं आएंगे। वैसे भी खाली-पीली हममें से कई, दुनियादारी के तमाम बोझों के साथ-साथ झूठे आवरणों का बोझ लिए घूमते रहते हैं। बिना मतलब का। अब ठंड में कई लोग टोपा और मफलर से परहेज करेंगे। उन्हें लगता है कि इस दिल्ली एनसीआर में उनके शैंपू और कंडिशनर किए बालों को निहारने के लिए कई लोग खाली बैठे हैं। उन्होने क्या पहना है? सब यही देखने के लिए जगह-जगह तैनात हैं। जबकि असल में इस भागम-भाग किसे इतनी फुरसत? सिर्फ भोली-भाली प्रमेिका के। कोई बड़ा-बूढ़ा, जो फुरसत में होगा.. पूछेगा कि "भइ कानों में ठंड नहीं लगती " तो कह देंगे- न ।

शनिवार, 19 जुलाई 2014

एक कॉमरेड का कमरा...

एक कॉमरेड का कमरा...
बिखरे पड़े जली-बुझे सिगरिटों और बीड़ी के ढूढ़
अस्त-व्यस्त पड़ीं किताबें...
दीमकों से चटीं पड़ी किताब के ऊपर रखा.. 
हफ्तों से न खाया गया..एक पुराना पान ।
किताबों की मोटी लाल जिल्द...
जिसपर हैं मार्क्स, लेनिन, फ्रायड के चित्र
और कमरे की दीवारों पर चिग्वेरा।
जब कॉमरेड ठिकाना बदलता है...
तो....
वर्षों पहले घर से लाया हुआ
टीन का जंग लगा बक्सा 
और उसमें रखी किताबें...
कमरें में छूट रहीं हैं
खाली शराब की बोतलें 
जिसमें क्वाटरों की संख्या ज्यादा है
क्रांति का सपना पाले 
कॉमरेड की किचन !
गैर मंझे, जमाने से रखे 
बर्तन....
लग गई है उनमें अब जंग..
कॉमरेड की प्रेमिका आती हैं
अहिस्ता- अहिस्ता....
और सीधे धूल और जंग लगे 
बासनों को मांजने लगती हैं
जानते हुए भी...
कि कॉमरेड की जेब में 
बिंडल और माचिस के सिवा 
कुछ नहीं हैं....कितना धैर्य होता है सच में.....भूपेंद्र

रविवार, 4 मई 2014

न चाहते हुए भी कुछ ख्याल आ ही जाते हैं फिर उन ख्यालों में इतना डूब जाता हूँ कि आसपास क्या हो रहा है पता ही नहीं रहता कुछ लोग धीरे से पास आते हैं और बीच में ही टोक देते हैं क्यों टेंसन में हो उन्हें पता नहीं होता कि मै कुछ सोच सोच कर जिंदगी के मजे ले रहा हूँ क्योंकि यादों के भी अपने मजे होते हैं कुछ लम्हे ऐसे होते हैं कि जी चाहता है फिर से उनका दोहराव पर जानता हूँ ये असम्भव है फिर भी लगता है ऐसा फिर हो सकता है कोई छूटा हुआ साथी फिर से मिल सकता है न चाहते हुए भी कुछ ख्याल आ ही जाते हैं